

क्या? घनेरी “क़हर” तूने डाला न था!
जिंदगी में कहीं, जब उजाला न था!
लड़ रहे जाम थे महफ़िलों में तेरे;
मेरी किस्मत का कोई भी प्याला न था!
तेरे कहने पे बोतल उठा ली मगर;
“पी” लिया था”रक़ीबों” ने, हाला न था!
हो के महफ़िल से मायूस घर ज्यों चला;
गिर गया, पर किसी ने सम्भाला न था!
माँ थी अबतक जगी,भूख भी थी जवाँ;
पर रसोई में कोई निवाला न था!
“गर्दिशें” “गुरबतों” से ही लड़ती रहीं;
ऐ खुदा ऐसी रहमत क्या डाला न था!
वक्त तूँ ही बता क्या से क्या क्यों हुआ;
ये गजब जिसने की,क्या ग़जाला न था!
पूजता रह गया उम्र–भर मै जिसे;
उसने खुद कह दिया वो शिवाला न था!
रचनाकार
कवि आलोक शर्मा महराजगंज यूपी